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मधुमक्खियों के भोजन स्त्रोतः

  • लेखक की तस्वीर: NiRAJ Soni
    NiRAJ Soni
  • 13 मार्च 2022
  • 7 मिनट पठन

मधुमक्खियों के भोजन स्त्रोतः

जनवरी : सरसों, तोरियाँ, कुसुम, चना, मटर, राजमा, अनार, अमरुद, कटहल, यूकेलिप्टस इत्यादि।

फरवरी : सरसों, तोरियाँ, कुसुम, चना ,मटर, राजमा, अनार, अमरुद, कटहल, यूकेलिप्टस, प्याज, धनिया, शीशम इत्यादि।

मार्च : कुसुम, सूर्यमुखी, अलसी, बरसीम, अरहर, मेथी, मटर, भिन्डी, धनियाँ, आंवला, निम्बू, जंगली जलेबी, शीशम, यूकेलिप्टस, नीम इत्यादि।

अप्रैल : सूरजमुखी, बरसीम, अरण्डी, रामतिल, भिन्डी, मिर्च, सेम, तरबूज, खरबूज, करेला, लोकी, जामुन, नीम, अमलतास इत्यादि।

मई: तिल, मक्का, सूरजमुखी, बरसीम, तरबूज, खरबूज, खीरा, करेला, लोकी, इमली, कद्दू, करंज, अर्जुन, अमलतास इत्यादि।

जून : तिल, मक्का, सूरजमुखी, बरसीम, तरबूज, खरबूज, खीरा, करेला, लोकी, इमली, कद्दू, बबुल, अर्जुन, अमलतास इत्यादि।

जुलाई : ज्वार, मक्का, बाजरा, करेला, खिरा, लोकी, भिन्डी, पपीता इत्यादि।

अगस्त: ज्वार, मक्का, सियाबिन, मुंग, धान, टमाटर, बबुल, आंवला, कचनार, खिरा, भिन्डी, पपीता इत्यादि।

सितम्बर: बाजारा, सनई, अरहर, सोयाबीन, मुंग, धान, रामतिल, टमाटर, बरबटी, भिन्डी, कचनार, बेर इत्यादि।

अक्टूबर: सनई, अरहर, धान, अरण्डी, रामतिल, यूकेलिप्टस, कचनार, बेर, बबूल इत्यादि।

नवम्बर : सरसों, तोरियां, मटर, अमरुद, शह्जन, बेर, यूकेलिप्टस, बोटलब्रश इत्यादि।

दिसम्बर; सरसों, तोरियाँ, राइ, चना, मटर, यूकेलिप्टस, अमरुद इत्यादि।

मधुमक्खियों की बिमारियों और उसकी शत्रु: मधुमक्खियों के सफल प्रबंधन के लिए यह आवश्यक है। की उनमे लगने वाली बिमारियों और उनके शत्रुओं के बारे में पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है। जिससे उनसे होने क्षति को बचाकर शहद उत्पादन और आय में आशातीत बढ़ोतरी की जा सकती है। मधुमक्खी एक सामाजिक प्राणी होने के कारण यह समूह में रहती है। जिससे इनमे बीमारी फैलने वाले सूक्ष्म जीवो का संक्रमण बहुत तेजी से होता है। इनके विषय में उचित जानकारी के माध्यम से इससे अपूर्णीय क्षति हो सकती है बिमारियों के अलावा इनके अनेकों शत्रु होते है जो सभी रूप से मौन वंशो को नुकसान पहुचाते है।

नाशीजीव :

यूरोपियन फाउलबु्रड : यह एक जीवाणु मैलिसोकोकस प्ल्युटान से होने वाला एक संक्रामक रोग है। इसका रंग गहरा होता है तथा इनसे प्रौढ़ मक्खी भी नही निकलती है। इस बीमारी की पहचान के लिए एक माचिस की तिल्ली को लेकर मरे हुए डिम्भक के शरीर में चुभोकर बहर की ओर खींचने पर एक धान्गनुमा संरचना बनती है। जिसके आधर पर इस बीमारी की पहचान की जा सकती है ।

रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की २४० मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति ५ लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन ३..२५ मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।


अमेरिकन फाउलबु्रड : यह भी एक जीवाणु बैसिलस लारवी के द्वारा होने वाला एक संक्रामक रोग है। जो यूरोपियन फाउलवूड के समान होता है यह बीमारी कोष्ठक बंद होने के पहले ही लगती है जिसे कोष्ठक बंद ही नही होते यदि बंद भी हो जाते है तो उनके ढक्कन में छिद्र देखे जा सकते है। इसके अंदर मर हुआ डीम्भक भी देखा जा सकता है। जिससे सडी हुई मछली जैसी दुर्गन्ध आती है इनका आक्रमण गर्मियों में या उसके बाद होता है।

रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की २४० मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति ५ लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन ३..२५ मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।

नोसेमा रोग : यह एक प्रोटोजवा नोसेमा एपिस से होता है इस बीमारी से मधुमक्खियो की पहचान व्यवस्था बिगड़ जाती है। रोगग्रसित मधुमक्खियाँ पराग की अपेक्षा केवल मकरंद ही एकत्र करना पसंद करती है। ग्रसित रानी नर सदस्य ही पैदा करती है तथा कुछ समय बाद मर भी सकती है। जब मधुमक्खियों में पेचिस, थकान, रेंगने तथा बाहर समूह बनाने जैसे लक्षण दिखे तो इस रोग का प्रकोप समझना चाहिए।

रोकथाम : फ्युमिजिलिन-बी का ०-५ से ३ मि.ग्रा. मात्रा प्रति १०० मि.लि. घोल के साथ मिला कर देना चाहिए। वाईसईकलो हेक्साईल अमोनियम प्युमिजिल भी प्रभावकारी औषधी है।

सैकब्रूड : यह रोग भारतीय मौन प्रजातियों में बहुतायात में पाया जाता है। यह एक विषाणु जनित रोग है जो संक्रमण से फैलता है। संक्रमित वंशों के कोष्ठको में डिम्भक खुले अवस्था में ही मर जाते ह।ै या बंद कोष्ठको में दो छिद्र बने होते है इससे ग्रसित डिम्भको का रंग हल्का पिला होता है अंत में इसमें थैलिनुमा आकृति बन जाती है।

रोकथाम : एक बार इस बिमरी का संक्रमण होने के बाद इसकी रोकथाम बहुत कठिन हो जाती है। इसका कोई कारगर उपोय नही है संक्रमण होने पर प्रभावित वंशों को मधु वाटिका से हटा देना चाहिए। तथा संक्रमित वंशो में प्रयुक्त औजारो या मौन्ग्रिः का कोई भी भाग दुसरे वंशो तक नही ले जाने देना चाहिए। वंशो को कुछ समय रानी विहीन कर देना चाहिए। टेरामईसिन की २५० मि. ग्रा. मात्रा प्रति ४ लिटर चीनी के घोल में मिलकर खिलाया जाये तो रोग का नियंत्रण हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित वंशो को नष्ट कर देना चाहिए।

एकेराईन : यह आठ पैरो वाला बहुत ही छोटा जीव है जो कई तरह से मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचता है। इस रोग में श्रमिक मधुमक्खियाँ मौन गृह के बहर एकत्रित होती है। इनके पंख कमजोर हो जाते है जिससे ये उड़ नही पाती है या उड़ते उड़ते गिर जाती है। और दोबारा नही उड़ पाती है इसका प्रकोप होने पर संक्रमित वंशों को अलग कर गंधक का धुंआ देना चाहिए। गंधक की २०० मि. ग्रा. मात्रा प्रति फ्रेम के हिसाब से बुरकाव करना चाहिए। डिमाईट या क्लोरोबेन्जिलेट जो क्रमशः पीके और फल्बेकस के नाम से बाजार में आता है को धुंए के रूप में देना चाहिए।

यह अष्टपादी जीव कछुए के आकार का होता है। जो मधुमक्खी के वाह्य परजीवी के रूप में नुकसान पहुचता है प्रौढ़ मादा अष्टपानी ५ दिन पुराने मौन लारवा वाले खण्ड में २ से ४ अंडे देती है जिनमे एक या दो दिन बाद कोष्ठक बंद हो जाते है। इसके ठीक बाद माईट के अन्डो से निम्फ निकलते है। और मधुमक्खी के लारवा पर भोजन लेकर उसे कमजोर बना देते है या अपांग बनाकर उसे मार देते है। इस अष्टपादी का ज्यादा प्रकोप होने पर नए श्रमिक बनने बंद हो जाते है। जिससे मौन वंश कमजोर हो जाते है जिससे कुछ समय बाद पूरा वंश समाप्त हो जाता है।


रोकथाम : प्रायः ऐसा देखने में आता है की मौनपालक जाने अनजाने मौनो को बचने के लिए जहरीले रसायनों का प्रयोग करते है जिससे काफी मात्रा में मौन मर जाती है। परिणामस्वरुप मौन पलकों को लाभ के बजे नुकसान उठाना पड़ता है इनके प्रबंध के लिए निम्नलिखित उपाय करनी चाहिए ऐसे मौन गृह से फ्रेम की संख्या कम कर देना चाहिए। साथी ही मौन गृह में मधुमक्खियों की संख्या बढ़ाने के उपाय करना चाहिए नर कोष्ठक वाले फ्रेम को बाहर निकाल देना चाहिए। तथा उसमे उपस्थित सभी नर शिशुओं को मार देना चाहिए। तथा दोबारा इस फ्रेम को मौन परिवार में नहीं देना चाहिए। सल्फर का ५ ग्राम पाउडर प्रति वंश के हिसाब से एक सप्ताह के अंतर पर बुरकाव करना चाहिए। फार्मिक एसिड की एक मि.लि. मात्रा एक छोटी प्लास्टिक की शीशी में डाल कर उसके ढक्कन में एक बारीक सुराख बनाकर प्रत्येक मौन गृह में रख देना चाहिए। साथ ही मौन गृह में भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करना चाहिए।

ट्रोपीलेइलेप्स क्लेरी : यह माईट जंगली मधुमक्खी या सारंग मौन का मुख्या रूप से परजीवी है इसका प्रकोप इटैलियन प्रजाति में भी होता है। प्रभावित वंश में प्युपा की अवस्था में बंद कोष्ठक में छिद्र देखे जा सकते है। कुछ प्यूपा मर जाते है जिनको साफ कर दिया जाता है जिससे कोष्ठक खाली हो जाते है। तथा जो डिम्भक बच जाते है उनका विकास विकृत हो जाता है। जैसे पंख, पैर या उदर का अपूर्ण विकास होना इसका लक्षण माना जाता है।

रोकथाम : एकेराईन बीमारी की तरह ही इसकी रोकथाम की जाती है।


वरोआ माईट : सर्वप्रथम यह माईट भारतीय मौन में ही प्रकाश में आई थी लेकिन अब यह मेलिफेरा में भी देखी जाती है। इसका आकार १.२ से १.६ मि.मी. है यह बाह्यपरजीवी है जो वक्ष और उदर के बिच से मौन का रक्त चुसती है मादा माईट कोष्ठक बंद होने से पहले ही इसमें घुसकर २ से ५ अंडे देती है जिससे 24 घंटे में शिशु लारवा निकलता है तथा ४८ घंटे में यह प्रोटोनिम्फ में बदल जाता है ।

नियंत्रण : फार्मिक एसिड की ५ मि.लि. प्रतिदिन तलपट में लगाने से इसका नियंत्रण हो जाता है। अन्य उपाय इकेरमाईट के तरह ही करनी चाहिए।

मोमी पतंगा : यह पतंगा मधुमक्खी वंश का बहुत बड़ा शत्रु है यह छतो की मोम को अनियमित आकार का सुरंग बनाकर खाता रहता है अंदर ही अंदर छत्ता खोखला हो जाता है। जिससे मधुमक्खियाँ छत्ता छोड़कर भाग जाती है इनके द्वारा सुरंगों के उपर टेढ़ी मेढ़ी मकड़ी के जाल जैसे संरचना देखी जा सकती है। इनके प्रकोप की आशंका होने पर छतो को 5 मिनट के लिए तेज धुप में रख देना चाहिये। जिससे इनके उपस्थित मोमी पतंगा की सुंडियां बाहर आकार धुप में मर जाती है। इस प्रकार इसके प्रकोप का आसानी से पता चल जाता है साथ ही सुडिया नष्ट हो जाती है ।

रोकथाम : इसका प्रकोप वर्ष के दिनों में जब मधुमक्खियो की संख्या कम हो जाती है जब होता हैं। जब मौन ग्रगो में आवश्कता से अधिक फ्रेम होते है तो इसके प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए अतिरिक्त फ्रेम को मौन गृहों से बहार उचित स्थान पर भंडारित करना चाहिए वर्ष में प्रवेश द्वार संकरा कर देना चाहिए। मौन गृह में प्रवेश द्वार के अलावा अन्य दरारों को अबंद कर देना चाहिए। कमजोर वंशो को शक्तिशाली वंशो के साथ मिला देना चाहिए।

शहद पतंगा यह बड़े आकार का पतंगा होता है। जिसका वैज्ञानिक नाम एकेरोंशिया स्टीवस है यह मौन गृहों में घुस कर शहद खाता है अधिकतर मधुमक्खियां इस पतंगे को मार देती है इस कीट से ज्यादा नुकसान नहीं होता है।

चींटियाँ : इनका प्रकोप गर्मी और वर्ष ऋतु में अधिक होता है जब वंश कमजोर हो तो इनका नुकसान बढ़ जाता है। इनसे बचाव के लिए स्टैंड के कटोरियों में पानी भरकर उसमे कुछ बूंद किरोसिन आयल भी डाल देनी चाहिए। जिससे चींटियो को मौन गृहों पर चढ़ने से बचाया जा सके।


 
 
 

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